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कविताएँ : पहली खेप

मंगलमूर्त्ति की हिंदी कविताएँ







१.सरहद के पार

मैं एक बहुत बड़े मकान का
सपना बराबर देखता हूं
जो न जाने कब से अधूरा
बना पड़ा है एक अनजाने शहर में

उसकी बाहरी छोर पर
जहां शहर का आख़री मुहल्ला
ख़तम हो चुका है और जहां से
खेत चारागाह और पगडंडियां
शुरू हो जाती हैं गांव की ओर

जहां उस दुहरे सीमांत पर खड़ा है
लाठी टेके न जाने कितनी सदियों से
एक बूढ़ा बरगद का पेड़ लंबी दाढ़ी वाला
जिस पर एक बहुत पुराना भूत भी रहता है
जिससे चलती रहती है चुहल, नोक-झोंक
पेड़ पर बसने वाली चिड़ियों के
हरदम गुलज़ार मुहल्ले की

वहां से दूर मैं आ गया हूं नदी किनारे
नदी जो सूख कर छिछली हो गई है
जिसके ऊंचे किनारों वाले सूराखों में
रहते हैं काले नाग, मोटे चूहे और घोंघे
नदी जहां गहरी है, दिन में नहाते हैं
गांव के बच्चे, नौजवान, बूढ़े उसमें

पर इस समय तो वहां कोई नहीं
एकदम सन्नाटा है चारों ओर
पूरे गांव में भी लगता है कोई है नहीं
पर कहां चले गये गांव के सारे लोग?
बरगद के पेड़ के पास भी सब सुनसान है
और वह आधा-अधूरा मकान भी   
अब वहां नहीं है, बस एक खंडहर है
जहां मैं खड़ा था सपने में
अब तो लगता है कोई शहर भी
कभी था ही नहीं वहां
उस बूढ़े बरगद वाले सरहद के पार ।


२. पिता

मुझे नहीं लगता मैं बूढ़ा होने पर
बिलकुल वैसा हो गया हूं जैसे मेरे पिता
अपने आख़िरी बुढ़ापे में लगने लगे थे
-
जाने से ठीक कुछ दिन पहले |
 
नहीं, मेरी उम्र तो अभी उनसे
दस साल ज़्यादा हो गई लेकिन
मेरे चेहरे पर वैसा पुरानापन
अब भी कहां दिखाई देता है
वैसी झुर्रियां भी कहां हैं?

लेकिन उनके झुर्रियों से भरे
बूढ़े, पोपले मुंह वाले चेहरे पर भी
जो बराबर एक मोहक मुस्कान दीखती थी
वह कहां है मेरे चेहरे पर ?
सरलता और विनम्रता की उसमें
जो एक स्वर्णिम आभा रहती थी
वह क्यों नहीं दीखती मेरे चेहरे पर?

सरल हृदय की जो एक रोशनी
फूटती थी उस चेहरे से वह रोशनी
क्यों नहीं है मेरे चेहरे पर
जब कि मैं उनके मुकाबले
दस साल ज़्यादा बूढ़ा हो चुका हूं?

मेरे चेहरे पर तो एक सियाह
सूनापन हमेशा फैला लगता है?
दोनों आंखों के नीचे स्याह धब्बों ने जैसे
बराबर के लिए अपनी जगह बना ली है?

झुर्रियों वाले उनके होठों के छोर भी
पान से लाल ही रहते थे हरदम
भीने-भीने जाफरानी ज़र्दे की
 खुशबू से गम-गम हर दम
जब कि मेरे होंठ तो न जाने कब से
सूखे-से ही रहते हैं फटे-फटे और खुश्क   

कम-से-कम दर्ज़न-भर जोड़े जूते
सजे रहते थे उनके छोटे-से कमरे के बाहर
जिनमें हिरन की छाल वाला भी एक जूता था
और खादी वाले कुर्तों- बंडियों से
धुलकर आने पर भी मज़मुए इत्र की
सुगंध कभी जाती नहीं थी, बसी रहती थी उनमें
जबकि मेरे जूते पर तो अक्सर धूल जमी होती है
और न मेरे ऐसे-वैसे तुड़े-मुड़े कपड़ों पर
कभी कोई कलफ़़ होता है और न उनमें
वो सफ़ेदी और चमक ही होती है बग-बग
जो मेरे पिता के सीधे-सादे खाड़ी के कपड़ों में
बराबर ही झलकती थी जहां भी वे जाते थे

आखिर-आखिर तक झुकी नहीं उनकी पीठ  
सीधी रही तनी अंतिम-अंतिम दिनों तक भी
जब कि मेरी कमर दर्द से अब झुक गई है,
घुटने भी अब उस तेजी से चल नहीं पाते

मुझे याद है मेरे पिता लम्बे-लम्बे डग भरते
इतना तेज चलते थे कि अच्छे-भले लोग भी
बुरी तरह पिछड़ जाते थे उनसे और मुझको तो
उनके साथ चलने में लगभग दौड़ना ही पड़ता था

उनका बुढा़पा जैसे रोशनी की एक मीनार थी
जिसकी रोशनी समंदर में दूर-दूर तक जाती थी और
न जाने कितनी भटकती नावों को रास्ता दिखाती थी
जबकि दस साल ज़्यादा बूढ़ा होकर तो आज मैं
एक ढही हुई इमारत, एक खंडहर-भर रह गया हूँ
एक बियाबान वीरान मंज़र-सा सुनसान श्मशान
जिसमें ज़हरीली हवाएं चुड़ैलों-सी
खिलखिलाती बहती रहती हैं  
जहां अकेलापन ख़ुद अपनी सलीब ढोता हुआ
उस पर टंगने की तैयारी में नजंर आता है




३. पुरानी दीवाल



ये पुरानी दीवाल
जिसके अंतरे में उग आया है
एक नन्हा-सा पीपल
कोमल चिकने चमकते हैं
जिसके पात और फुनगियां
लाल टूसे और हरी टहनियां
भीतर ही भीतर दीवाल के अंदर
फैल रही हैं इसकी मज़बूत जड़ें
तोड़ रही हैं ये शायद अंदर ही अंदर
दीवाल की पोर-पोर
दरकने लगी हैं इसकी ईंट-से-ईंट
झड़ने लगा है इसका पलस्तर जगह-ब-जगह
इस पर जो पुराने मलहम का विज्ञापन
कभी किसी ने काले रंग में लिखा होगा
अब धब्बों से दागदार और धुंधलाता
मिटने-सा लगा है हर तरफ

ये पुरानी दीवाल मेरे ही घर के सामने
सड़क की दूसरी ओर है
इस पुरानी दीवाल के पीछे भी
एक बहुत पुरानी कोठी है
जो न जाने कभी से आधी से ज़्यादा
खंडहर में तब्दील हो चुकी है
झाड-झंखाड़ फ़ैल गये हैं
उसके चारों ओर
दिन में भी अंधेरा रहता है उधर
सामने की ये पुरानी दीवाल
उस कोठी की मनहूसियत को
छिपाने के बदले जैसे
उसको उजागर कर रही है

तभी न जाने किधर से
एक कुत्ता आता है
और दीवाल को भिंगो देता है
जैसे उसकी प्यास बुझाने आया हो



४.मेरी कविताएँ

कुछ कविताएं लिखी हैं मैंने
लेकिन मैं उनको दफ़ना देना चाहता हूं
क्योंकि उनकी पुतलियां अब ठहरी-जैसी
सहसा पथराई-जैसी लगने लगी हैं
उनका चेहरा भी अब मुझे ज़र्द लग रहा है
मुझको उनके सियाह होठों पर भी
अब कोई जुम्बिश नहीं दिखाई देती
हालांकि वे ज़रूर कुछ कहना चाहती रही हैं
ऐसा तो मुझे हर वक्त साफ़ महसूस होता है

ग़ौर करने पर मुझे उनकी खुली-बुझी आँखों के
किनारे भींगे-भींगे से लग रहे हैं
जैसे गुमसुम रोने में होता है
या जब मन का अवसाद पानी बन कर
आंखों में छलछला आता है चुपचाप
और ढुलक जाता है आंखों की कोर से

मुझे लगता है मैं हल्के से उंगलियों के पोर से
पोंछ दूं उनकी आंखों की कोर से ढुलके ये आंसू
न जाने कौन सा दर्द छिपा था इनके मन में
कौन सी गहरी व्यथा थी भीतर-ही-भीतर
जिसे ये चुपचाप सह रही थीं
पर कह नहीं पाती थीं

इनके इन पथराये होठों में गुम हो गया
कोई अनगाया गीत जिसमें ये बीते दिनों की
कितनी ही अनकही कहानियां
सुनाना चाहती होंगी
पहले प्रेम के मदभरे चुंबनों की रस-कथाएं
भीगे आलिंगनों की ज्वाला में पिघलती
सोने-चांदी की चुराई दुपहरियों
और घुमड़ती बरसाती रातों की कसमकश

कुछ ऐसे नग़में दर्द-भरे जिनके सरगम में
गूंजते रहे सदियों के अफसाने



५.ज़रूरी था जाना

किसने ओढ़ाई ये चादर
मुझको चलते-चलते
इज़्ज़त बख़्शने की खातिर

किसने दिया मुझको
ये सुर्ख गुलाबों का गुलदस्ता
जब कि मैं चलने को था

जब कि मैं थोड़ी जल्दी में था
जहां जाना था मुझको
समय से पहुंचना था वहां

इंतजार था वहां मेरा
बहुतों को जिनको जाना था
जिनको बुलाया गया था

वे पहले ही जा चुके थे
कुछ तो बिल्कुल समय से
और कुछ थोड़ी देर से भी
और कुछ तो पहुंच गए थे
समय से बहुत पहले भी

बस मुझको ही देर हो गई
यहां इस उत्सव में रुकने से
इस चादर, इस गुलदस्ते
की वजह से ही देर हो गई

अब इतनी देर से जाने पर
वहां जगह मिलेगी मुझको?
लेकिन जाना तो पड़ेगा ही

क्योंकि इंतज़ार तो होता होगा
वहां मेरे पहुंचने का
कुछ देर से ही सही
चलो पहुंच तो जाऊंगा।




६. सुनो पार्थ!

जब कभी तुम्हें लगता है 
एक घोर अँधेरा अपने चारों ओर
जब कुछ नहीं सूझता तुम्हें 
उस घुप्प अँधेरे में 
जब सांस घुट रही होती है तुम्हारी
उस काले अभेद्य अँधेरे में 
और दिल डूब रहा होता है तुम्हारा 

तब कौन अचानक
तुम्हारा हाथ थाम लेता है?
कौन देता है सहारा तुम्हें 
तुम्हारी पीठ पर
अपना हाथ रख कर

और तभी तुम्हें दिखाई देती है 
प्रकाश की एक किरण फूटती हुई
उस काले घने अँधेरे में भी
सांस में सांस लौट आती है तुम्हारी
एक मुस्कराहट छा जाती है तुम्हारे होठों पर 
और चमक उठती हैं तुम्हारी आँखें
जब  उस किरण की जोत से 
तब तुम्हें नहीं लगता  वह तुम्हीं हो?
तुम्हीं तो वह कृष्ण हो 
और तुम्हीं हो अर्जुन भी!



७. एकांत

 जब तुम बिलकुल अकेले होते हो
एक बियाबान सुनसान रेगिस्तान में
या जब तुम बिलकुल अकेले होते हो
एक भाग-दौड़ की भीड़ में भी
जब तुम्हारे चारों ओर या तो
एक अंधेरा भयावह सन्नाटा होता है
या फिर एक शोर- गुल से भरा
चिल्लाहट का जंगल

तब भी तुम बिलकुल अकेले नहीं होते
क्योंकि मैं तुम्हारे साथ होता हूं;
हालांकि तुम मुझे देख नहीं पाते
क्योंकि मैं तुम्हारे अंदर ही रहता हूं
तुम्हारे दिल की धड़कन बन कर
तुम्हारे मन का अवसाद बनकर
जो एक छंट जाने वाली बदली-भर है
जिससे घिरे हुए तुम
इतने अकेले हो जाते हो

तब मैं ख़ुद  तुम्हारा अकेलापन बन जाता हूं;
तुम्हारी उदासी की चादर खुद ओढ़कर
मैं तुम्हारे अंदर ही कहीं
छिप बैठ जाता हूं
और सोचने लगता हूं
कैसे अलग करूं तुमको
तुम्हारे इस मनहूस अकेलेपन से,
कैसे बताऊं तुम्हें
कि तुम अकेले नहीं हो
कि मैं भी तुम्हारे अंदर हूं,
तुम्हारे साथ हूं

मैं तुम्हें अंदर से आवाज़ भी देता हूं
तुम्हें बताने के लिए
कि तुम अकेले नहीं हो
कि मैं तो तुम्हारे अंदर ही,
तुम्हारे साथ ही हूं

जिसे तुम अपना
अकेलापन समझ रहे हो
जो अकेलापन
तुम्हें अवसाद से घेर रहा है,
वास्तव में यही तो वो घड़ी है,
मेरे साथ होने की;
यही तो वह एकांत समय है
जब हम दोनों
एक दूसरे से मिल कर,
साथ बैठ कर
एक दूसरे की आंखों में
आंखें डालकर एक-दूसरे से  
अपना सुख-दुःख बाँट सकते हैं

लेकिन यह बात तुम्हें
मैं कैसे समझाऊं?
क्योंकि मैं तो तुम्हारे भीतर बैठा हूं,
और मेरी आवाज़
तुम कहां सुन पा रहे हो?


८. नंगा सलीब

सोचता हूँ एक लम्बी कविता लिखूं
पर जो इस जीवन से बहुत छोटी हो
जिससे दुहरा-तिहरा कर नाप सकूं
इस जीवन की पूरी लम्बाई को

लेकिन कैसे नापूंगा उसकी लम्बाई
क्या वह लम्बा होगा किसी ठूँठ जितना
झड चुके होंगे जिसकी चंचरी से
हरे, मुलायम, कोमल सभी पत्ते

और वह खडा होगा विस्मित-चिंतित
एक कौवा-उडावन सा  
झींखता-घूरता -झुँझलाता-बदहवास
एक नंगे सलीब की तरह अकेला

समझ में नहीं आता
क्या उसका अपना जीवन ही
टंगा होगा उस सलीब पर?

नहीं, नहीं, उसको नापना
उसकी पूरी पैमाइश करना
कविता के बूते की बात नहीं

कविता भला कैसे नाप सकेगी
उसकी अनिश्चित, अधूरी लम्बाई?

तब फिर क्या होगा ?


९. मेरी ये किताबें  

बूढ़ी हो गई हैं मेरे साथ
मेरी ये किताबें भी
और जो नई-नई आईं
जैसे किसी नवाब के हरम में
बीबियाँ  और शोख-चुलबुली बांदियां
फीकी पड़ गईं धीरे-धीरे वे भी
जैसे-जैसे रातें ढलीं
और दिन बीतते गए

जहां-जहां जाता हूँ मैं
मेरे साथ जाती हैं मेरी ये किताबें
वफ़ा का रिश्ता है मेरा इनका
पता नहीं मेरे बुढ़ापे को ये ढो रही हैं
या मैं ढो रहा हूं इनका बुढ़ापा

इनमें ज़्यादातर तो ऐसी हैं
जिनके साथ कुछ ही दिन या घंटे
मैंने बिताए होंगे
लेकिन कुछ क्या बहुत सारी
तो ऐसी भी हैं
जिनके पन्ने-पन्ने रंग डाले हैं मैंने
खूबसूरत हरफों-निशानों से

जिनके भीतरी मुखपृष्ठ पर
ऊपरी कोने में करीने से
अंकित हैं मेरे हस्ताक्षर
जो बताते हैं ये मेरी हैं
पूरा हक़ है इन पर मेरा
इन्हें पढ़ सकता हूं मैं
शुरू से आख़िर तक कई-कई बार
इनके हर पन्ने को पलटते हुए
लाल-लाल लकीरों से
जैसे इनकी मांग भरते

या बस एक बार
उलट-पलट कर
सजा दे सकता हूं
इनको इनकी आलमारी में
जहां ये सजी रहती हैं
इस इंतज़ार में कि फिर कभी
मैं ज़रूर इनके साथ
बिताऊंगा कुछ वक्त

जब घड़ी की सुइयां
ठिठक जाएंगी
कुछ लमहों के लिए
आंखें मुंदने लगेंगी मेरी बार-बार
नींद के मद-भरे झोंकों से  
इनमें से किसी एक दुबली-पतली
तीखे नाक-नक्श वाली हसीना को
प्यार से अपने सीने पर सुलाए
इस उमीद में कि फिर वह मिलेगी
किसी रुपहले सपने में मुझे -
उनमें से कोई तो?


१०. मैं  याद रखूंगा

यात्रा पर निकलने से पहले मैं याद रखूंगा
अपना सामान सहेजते वक्त
कुछ थोड़ी सी बहुत ज़रूरी चीज़ें
जिन्हें मैं साथ ले जाना चाहूंगा
अपनी पीठ पर ढोते हुए

कुछ ऐसी चीजें, बेशकीमती,
जैसे एक मरा हुआ सच
जो अब सड़कर दुर्गंधित होगा
या एक न्याय जिसका बेरहमी से
गला घोंटा गया हो
या वह विश्वास जिसकी पीठ में
घोंपा गया हो एक लंबा ख़ंज़र
या अपना आत्म-सम्मान जिसको
साना गया हो कीचड़ में
या वह सौहार्द जिसके साथ हुआ हो
सामूहिक बलात्कार

इन सब को समेटना होगा मुझे
अपने साथ ले जाने वाले
पीठ पर ढोकर ले जाने वाले
मोटे चमड़े के बने झोले में
बहुत एहतियात से, संभाल कर

क्योंकि सफर भी तो होगा तवील -
मीलों दूर का - मंज़िल भी तो होगी
क्षितिज के उस पार की
एक ऐसा आख़िरी सफ़र
एक ऐसी मंज़िल जहां मिलना होगा
उस बूढ़े बुज़ुर्ग इंसाफ़ के बंदे से
जिसे इंतज़ार होगा इस सारे सामान का

इस मरे हुए सच का
या इस अधमरे न्याय का
या इस लहूलुहान विश्वास का
या इस कीचड़ में सने आत्म-विश्वास का
या इस बुरी तरह क्षत-विक्षत सौहार्द का

बहुत ज़रूरत होगी उसको
इस तरह के घायल, टूटे-फूटे सामान की
जो नहीं मिलते उसके शहर में कहीं
इसीलिए मुझको ख़त भेज कर
मांगी हैं ये बेशकीमत चीज़ें
उस बूढ़े बुज़ुर्ग ने मुझसे

क्योंकि उसके यहां
नहीं मिलती ये बेशकीमती चीज़ें
और मुझे लेकर जाना है
उसके शहर में ख़ास उसके लिए
यह सारा ज़रूरी सामान
अपनी पीठ पर ढो कर


११. परछाईं

मेरे चारों तरफ़ बराबर
एक उलझन-सी बनी क्यों रहती है
जबकि मैं उस उलझन में नहीं उलझता ?
क्यों बराबर उलझी रहती है मुझसे
ये जि़द्दी बेमलब की उलझन - बिलकुल बेवजह

मैं तो इसको कभी तवज्जो भी नहीं देता
लेकिन ये है कि मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं
लिपटी रहती है मुझसे हर वक्त बेशरम
चाहे मैं लेटा रहूं, या नीम-नींद में क्यूँ न रहूँ ,

चाहे किसी काम में मसरूफ़ रहूं,
बैठा रहूं, चलता रहूं, या कुछ सोचता
क्यों न रहूं - किसी गंभीर मसले पर

इसकी बस एक ही फ़ितरत है
बैताल की तरह मेरी गर्दन पर सवार रहना
लगता है इसको कहीं और नहीं जाना है
बस मेरी परछाईं बन कर बराबर
मेरे पीछे-पीछे मंडराना है

लेकिन शायद ये नहीं जानती
मेरी गर्दन पर सवार होकर भी
कभी ये मेरा कुछ न बिगाड़ सकेगी
और न कभी हो सकेगी हावी मुझ पर
ज़्यादा से ज़्यादा ये हमेशा बनी रही
बस मेरी परछाईं-भर, बस मेरा एक साया
जो आखिर-आखिर तक कभी  
मेरे अंदर समा न पाया !



१२. अजगर शहर

छोटे शहर से जब मैं
बड़े शहर में आता हूं
बहुत संभाल कर
अपना छोटा शहर
साथ लेता आता हूं

जब पहली बार गांव से
उस छोटे शहर में आया था
पूरा गांव गठरी में बांधकर
बड़ी हिफ़ाज़त से
अपने साथ लाया था

तब तो मेरे साथ
मेरे गांव की नदी भी थी
जिसमें आम और महुआ की
डालें झुक कर पानी पीती थीं
और वे खलिहान भी थे जहां
पुआलों के ढूहों पर हम
चढ़ते और फिसलते थे

वो बंसवारी, वो गड़ही भी थी
जहां कौन दिन नहीं
सीटी बजा-बजा कर
चुरइलिया दिन-दुपहरिया ही
नाचती थी, गाती थी

अरे, वह सब मैं लाया था
बांधकर अपनी मोटरिया में
और बहुत दिन तक वह सब रहा
मेरे साथ बिल्कुल वैसे ही
उस छोटे शहर की मेरी
उसी कोठरिया में

लेकिन एक दिन
वह सब छोड़कर
उस छोटे शहर का
अपना वह छोटा-सा
आशियाना छोड़कर
गांव वाली वो अपनी
प्यारी-प्यारी गठरिया
भी छोड़-छाड़ कर मैं
न जाने कैसे चला आया
इस इत्ते बड़े शहर में

जिसमें मेरा अपना गांव
कहीं फुटपाथों पर मिल जाता
मुंह ढके सोया हुआ मरा-सा
और मेरा छोटा-सा अपना  
शहर भी अक्सर मिल जाता
दूर-दराज़ के बेतरतीब मुहल्लों
या लम्बे-लम्बे पुलों के आजू-बाजू
बसी झुग्गी-झोपड़ियों में
खांसता-हांफता-सा बीमार

तब मैं जल्दी-जल्दी
आंखें बचाता चाहता
निकल जाऊं, आगे बढ़ जाऊं
किसी और बहुत बड़े
शहर की ओर जहां हों
और-और चौड़ी चिकनी सड़कें
और लम्बे-लम्बे पुलों के जाल
एक-दूसरे के नीचे-ऊपर
अजगरों की तरह
गुत्थम-गुत्था लिपटते हुए
जो समूचा-का-समूचा निगल जाएं
मेरे नदी वाले उस गांव को
जिसमें आम और महुआ की
डालें झुक कर पानी पीती थीं

और मेरे अपने उस
छोटे प्यारे शहर को भी
जहां अपनी छोटी कोठरिया में
मैंने आकर पहले-पहल
रखी थी अपने गांव की
अपनी छोटी-सी गठरिया


१३. धुंधलका  

न जाने क्यों
रोज दोपहर बाद
जब मैं सोता हूं
और बहुत मान-
मनावन के बाद
जब न जाने कब
मुझे नींद आ जाती है

तो जब नींद
खुलने लगती है
तो कुछ देर तक
एक धुंधलका 
जैसा लगता है
और लगता है
अब सुबह हो गई है
और मुझे उठना है
टहलने जाने के लिए

और तब थोड़ी
देर लग जाती है
यह समझने में
कि अब सुबह कहां
अब तो शाम
होने वाली है



१४. वक़्त की इबारत

हर वक़्त और वक़्त-बेवक़्त 
लिखता रहता है वक़्त
अपनी इबारत मेरे चेहरे पर
खींचता रहता है उस पर
आड़ी-तिरछी लकीरें

जैसे किसी फ़ाइल पर
करता हो अपना दस्तख़त
जिसमें पहले से दर्ज़ हों
उलझे पेचीदा मसले
जिनको किसी तरह
बस निपटाना हो, टालना हो

जिनका कोई हल निकालना
या नहीं निकालना हो
बस ग़ुबार की तरह
कालीन तले दबा देना हो

या बना रहा हो धीरे-धीरे
किसी मकबूल की कूंची लिए
अपने मन की कोई तस्वीर
आड़ी-तिरछी लकीरों के गिर्द

मुझसे बिलकुल छुपे-छुपाए
अनदेखे अनजाने हर वक़्त
मेरे चेहरे के कैनवस पर
घंटों और पहरों के मिले-जुले रंगों से

जिसे मेरा आइना मुझे नहीं दिखाता
कभी किसी दिन चाहे मैं
कितना भी ग़ौर करूं निहारूं
अपना रोज़ का वही घिसा-पिटा
आड़ी-तिरछी लकीरों से भरा चेहरा
जिससे वक्त की निगाह कभी हटती नहीं
क्षण-भर के लिए भी कहीं
भले ही मेरा आइना ऊब जाए
 मेरे चेहरे को देखते-निरखते


१५. मेरी बेटियाँ

मेरी सभी बेटियां
अब मेरी माँ बन गई हैं
जिनमें मेरी बहू भी है
वह भी तो बेटी है मेरी
पर वे सब माँ हो गई हैं अब

अपने बच्चों की भी
और मेरी भी माँ
बन गई हैं धीरे-धीरे

वे कभी मेरी बच्चियां थीं
मेरी और उनकी माँ की

बहुत छोटी थीं वे
उनकी प्यारी-प्यारी लटें
जिन्हें समेट कर लगाती थी
चोटियाँ गूंथ कर एक क्लिप
और लाल-नीले फीते बाँध कर  
बना देती थी दो फूल

उनकी मां जो मेरी पत्नी थी
रंग-बिरंगे  फ्रॉक और निकर
पहना देती थी उनको नहला-धुलाकर  
पावों में गुलाबी बूटों वाले
एलास्टिक लगे नन्हे-नन्हे जूते
और बैठा देती थी उनको सजा-संवारकर  
काठ के उस घोड़े पर
जिसके दोनों कानों के खूंटे
पकड़ लेती थीं वे जोर से
दोनों हाथों से और वो पालतू घोडा भी
उनके बैठते ही हिलने लगता था
अपनी मधुरी चाल में
आगे-पीछे पीछे-आगे
धीरे-धीरे धीरे-धीरे

क्योंकि वह जानता था अच्छी तरह
कि एक दिन उनकी पीठ पर सवार
यह बिटिया भी दुल्हन बनेगी
चोली-लहंगे और महावर में
और फिर मां भी बनेगी
अपनी नई प्यारी-सी बिटिया की
फ्रॉक और निकर वाली
पावों में गुलाबी बूटों वाले
एलास्टिक लगे नन्हें-नन्हें जूते पहने
चोटियों में वैसे ही क्लिप लगाए
लाल-नीले फीते के दो फूल बनाए

और वो भी बैठेगी इसी तरह
उसके दोनों कानों के मूठ पकडे
हंसती-खिलखिलाती और फिर
वह हिलने लगेगा उसी तरह
आगे-पीछे आगे-पीछे
धीरे-धीरे धीरे-धीरे
अपनी मधुरी चाल में

और फिर एक दिन आयेगा ऐसा भी
जब ये अपने बालों में
लाल-नीले फीते के दो फूल
लगाने वाली बेटियां ही बन जाएँगी
अपने बूढ़े बाप के लिए मां जैसी

जैसी बन गई हैं मेरी बेटियाँ
और अब तो मेरी बहू भी -
सब बन गयी हैं मेरे लिए मेरी मां

सभी बेटियाँ ही मां होती हैं और
इसीलिए सभी बहुएं भी माँ होती हैं
उनका होना ही हमारे लिए
हमारा होना है, हमारा जीना है |


१६. मैं जहाँ हूँ

मैं जहां हूं
यह भी एक अनजानी जगह है
चारों ओर एक सन्नाटा है बस
मेरी आंखों में भी
जगी हुई एक नींद भरी है

लेकिन ठीक लगती है
यह सुनसान जगह भी मुझको
मैं जहां हूं वहीं ठीक हूं
मुझे नहीं जाना चाहिए और कहीं

इस जगह से आगे तो
एक रास्ता जाता है
पर कहां जाता है
यह नहीं मालूम मुझे

उस रास्ते पर बिना जाने
आगे बढ़ना ठीक होगा
कह नहीं सकता मैं

कौन जाने आगे जाकर
यह रास्ता पहुंच जाए
किसी दोराहे पर या
फिर किसी तिराहे या चौराहे पर
जहां पहुंच कर मेरे सामने
खड़ा मिले यही रास्ता
अपनी लंबी दो-तीन
या चारों-आठों बाहें फैलाए
ऑक्टोपस की तरह मुझको
अपनी पेचीदा गिरफ्त
में ले लेने के लिए आतुर

ऐसे में तो कोई भी राहगीर
गंभीर उलझन में पड़ जाएगा
कौन-सी राह पकड़े
किधर जाए, - आगे जाए
बाएं जाए या दाएं जाए

पता नहीं कौन-सा रास्ता
कहां ले जाएगा किस ओर
मंजिल कितनी दूर होगी वहाँ से
या उस पर आगे फिर कोई
मिलेगा - तिराहा या चौराहा

और अगर यह बनता गया
कभी न ख़त्म होने वाला
एक सिलसिला-
एक भूल-भुलैया -
जिसमें फंस जाने वाला
कभी उससे बाहर नहीं
निकल पाता - और न कभी
पहुंच पाता किसी मंज़िल पर ही
घूमता रह जाता है
रास्तों के उसी जंगल में
जब तक रात न हो जाए
जब तक थक कर गिर न जाए वह
टूट न जाए जब तक उसकी सांस

तब फिर ऐसे सफ़र पर
निकलने से क्या फ़ायदा

नहीं मुझे नहीं जाना है कहीं
मैं जहां हूं वहीं रहूं
यही ठीक रहेगा।

मैं हासिल कर लूंगा
अपनी मंज़िल यहीं
जहां मैं हूं - हां यहीं
मिलेगी मेरी मंज़िल मुझे

नहीं - मुझे नहीं जाना है कहीं
मैं जहां हूं वहीं रहूं
यही ठीक रहेगा ।


१७. तिराहा

मैं जिस सड़क पर चला आ रहा था
वह बहुत दूर कहीं से आने वाली
एक काफी चौड़ी-सी सड़क थी
पर न जाने क्यों वह यहाँ आकर
अचानक रुक गई है, और देखता हूँ
यहाँ जहाँ मैं अब पहुँच कर खड़ा हूँ
यह सड़क अब सीधे आगे जाने के लिए
बंद हो गई है, और इसकी दो बाहें
एक बाएं पश्चिम की ओर तो
दूसरी दायें सीधे पूरब की ओर
मुड़ गई हैं एकाएक और
उत्तर की ओर आगे बढ़ने का
अब कोई रास्ता नहीं दीख रहा

जहां यह रास्ता बंद हो गया है
वहां एक बड़ा सा तख्ता लगा हुआ है
जिस पर दो तीर बाएं और दायें की ओर
जाने का इशारा कर रहे हैं, हालांकि
ये किन गंतव्यों की ओर ले जायेंगे
यह सब कुछ उन तीरों के नीचे
लिखा हुआ एकदम धुंधला पड चुका है

उत्तर की ओर जाने वाली
यह सड़क लगता है
अब यहाँ आकर एक तरह से
ख़तम हो गई है, और मैं वहां
पहुँच कर अब पसोपेश में हूँ
कि अब यहाँ से उत्तर की ओर
आगे कैसे जाना होगा
जहाँ से यह सड़क अब या तो
बाएं पच्छिम जाएगी या
फिर पूरब की ओर दायें जाएगी
नहीं तो बस एक ही विकल्प होगा
कि फिर उलटे पांव वापस
उधर ही जाना होगा जिधर से
मैं अपने गंतव्य उत्तर की ओर
जाने के लिए निकला था

लेकिन अब तो मैं इस तिराहे पर
आकर हैरान हो गया हूँ कि
अब मैं उत्तर अपने गंतव्य की ओर
कैसे आगे बढूँ, क्योंकि मेरे पीछे
वाली यह सड़क तो कहीं
बहुत दूर से आ रही थी
और मैं इस उम्मीद में ही
आगे बढ़ता चला आ रहा था
कि मैं उत्तर की ओर जाने वाली
इस सड़क पर चलते-चलते
अपने गंतव्य पर पहुँच ही जाऊंगा

मेरे सामने अब कठिन प्रश्न है कि
या तो मैं बाईं ओर वाली सड़क
की ओर मुड जाऊं और आगे चलूँ
या फिर दायीं ओर वाली सड़क पकडूं
और उसी दिशा में आगे बढूँ
क्योंकि उत्तर की ओर जाने वाली
जिस लम्बी सीधी सड़क पर
चलता हुआ मैं यहाँ तक पहुंचा हूँ
वह तो यहाँ आकर बंद हो गई है

और अब यहाँ जहां यह सड़क
बंद हो गई है सीधे आगे जाने के लिए
वहां इस तख्ते पर बने हुए दोनों तीर
और उनके नीचे धुंधले पड़ चुके नाम
मेरे असमंजस को और बढा रहे हैं
कि अब मैं जाऊं तो किधर जाऊं
बाएं पच्छिम की ओर किसी अनजान,
धुंधले गंतव्य की ओर जाऊं, अथवा
दायें पूरब की ओर, उतनी ही किसी
अनजान मंजिल की ओर आगे बढूँ

मैं अनिश्चय में थक कर यहीं बैठ गया हूँ
और उस तख्ते पर बने हुए तीरों और
उनके नीचे लिखे धुंधले नामों को
पढ़ने की व्यर्थ कोशिश कर रहा हूँ
क्योंकि उनपर लिखे हुए नामों को
मैं पहले से जानता भी तो नहीं हूँ

तख्ते से आगे उत्तर की ओर कभी
ये सड़क ज़रूर कहीं जाती होगी
क्योंकि अभी उस मिटी हुई पुरानी सड़क के
कुछ निशान जैसे ज़रूर दिखाई देते हैं
हालांकि अब उधर चारों ओर
बहुत सारा झाड-झंखाड़ जम गया है,
और उस मिटी हुई सड़क की
कोई पहचान बाकी नहीं रह गई है

लेकिन मुझे तो दाएं-बाएं नहीं जाना है
मेरी राह तो सीधे आगे जाती है
भले आगे झाड़-झंखाड़ जंगल ही
क्यों न हों, जाना तो मुझे सीधे ही है
क्योंकि सीधे जाने वाला रास्ता ही तो
उत्तर मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचाएगा
और दाएं-बाएं जाने वाले इन अनजाने
ख़तरनाक रास्तों में भटकने से बचाएगा

 
१८ . कहाँ रहती हो कविता
 
कविता तुम
कहां रहती हो
मैं बराबर ढूंढ़ता
रहता हूं तुमको
छंदराज कभी मिलता है
तो पूछता हूँ उससे तुम्हारा पता
वह धीरे-धीरे गुनगुनाता है

पात वनज कंकोल के
स्तब्ध हो गए डोल के
हवा हो गई हवा कि जैसे
हांक लगा छुप जाये कोई
नाम किसी का बोल के  

मैं दुबारा पूछता हूँ
तुमने कहीं देखा है उसे
मेरी कविता की
उस पहली पंक्ति को

मेरी उस कविता की
वह पहली पंक्ति
कुछ ही शब्द है उसमें
तीन या चार छोटे--छोटे
कल से ही ढूंढ रहा हूँ  
मैं उसको उस तीन-चार
शब्दों वाली छोटी-सी पंक्ति को

मैंने देखा था उन तीन-चार शब्दों को  
एक बार आते हुए
एक-दूसरे का हाथ थामे
कुहासे के बाहर जैसे  
वे आ रहे थे मेरी ओर

मेरी कविता की पहली पंक्ति थे वे
उनके पीछे अभी और शब्द होते
और भी  पंक्तियाँ होतीं 

मुझे मालूम था वे
आ रहे थे मेरी ओर
छोटी-छोटी कई पंक्तियों में
एक-दूसरे का हाथ थामे
अक्षर, अक्षर, शब्द और शब्द
एक के पीछे एक – कतार में

फिर अचानक वे गुम हो गए
उसी तरह कुहासे में
बस एक हल्की-सी  आवाज आई
तुम प्रतीक्षा करो
हम लौट कर आते हैं

और मैं तब से इंतज़ार में हूँ
कविता कब लौट कर आती है
क्योंकि मुझे नहीं मालूम
कविता कहाँ रहती है |


१९. जरूरी सामान  

मेरे बहुत-से दोस्त
मुझको छोडकर
पहले चले गए जबकि
मैं अपना सामान अभी
समेट ही रहा था
उनको पुकार कर
मैंने कहा - यारों थोड़ी
जगह मेरे लिए भी रखना

बोले वे जगह की कमी
यहां बिलकुल नहीं
आराम से आओ
बस कोई सामान
अपने साथ मत लाना
यहां सब मिल जाता है


२०. घालमेल
ज्यादा जीने की 
ख़ाहिश ही क्यों देते हो 
जब ज्यादा जीने नहीं देते? 
और मरने की ख़ाहिश 
इतनी देते हो पर 
मरने भी कहां देते हो -
उलटा रवैया है तुम्हारा 
सब का सब|
 
जीने वाले को मरना होता है, 
वहीं मरने वाले को जीना ही है|
आराम से जीनेवाले को जीने 
और मरनेवाले वाले को मरने देने में
तुम्हारा क्या जाता है?
 
क्यों इतना घालमेल फैला रखा है तुमने,
समझ में नहीं आता|
आदमी को क्या अपने जीने-मरने की 
आज़ादी का भी हक़ नहीं?
 
जीने में लाख मुश्किलें,
तो मरने में उससे भी ज्यादा| 
दुनिया का गोरखधंधा 
क्या इसीलिए बनाया तुमने? 
हर कदम पर मुश्किलें 
खड़ी करने के लिए ?
आदमी को बनाया बस 
मुश्किलों से जीवन भर 
लड़ते रहने के लिए?
 
क्षण भर का सुख क्या देते हो 
कि तुरत कोई न कोई बखेड़ा 
खड़ा कर देते हो; 
अब सुख क्या भोगोगे, 
लो पहले इस बखेड़े को झेलो|

मुझे तो लगता है, 
तुम आदमी को ज़िंदगी
या मौत नहीं देते, 
उससे कोई बदला निकालते हो|
 
वह बेचारा परेशान, 
हाथ जोड़ता है, 
पांव पड़ता है, 
और तुम तो बस 
उसके पीछे ही पड़े रहते हो| 
समझ में नहीं आता 
तुम्हें भगवान किसने बनाया 
ज़रूर उसने भी तुमसे 
कोई बदला निकाला होगा |


२१. दीवाली

आज दीवाली है
दीपावली, दीपमालिका !

अमावस की काली
अंधेरी रात के घनघोर अंधेरे को
हज़ारों-लाखों दीयों
और रंग-बिरंगी रोशन झालरों से
मिटाने की एक उल्लासमय कोशिश!

आसमान में फूटती-बिखरतीं आतिशबाजियां
पटाखों का शोर और धुंआंधार धमाके
मेवे-मिठाइयों के न जाने कितने डब्बे
ड्राइंगरूम में, फ़्रिजों में ठसाठस भरे -

लेकिन इन सब के बीच मेरा मन
क्यों चला जाता है बार-बार
उन हज़ारों-लाखों अंधेरी गिरी-पिटी
झुग्गी-झोपड़ियों की ओर
जिनमें करवटें बदलती पड़ी हैं
भूखी-सूखी ठठरियां ऐंठती हुई
पेट की आग में झुलसतीं -

और ये कैसी आग लहक रही है
इन भूख से जलते पेटों में
जिनकी आंच की धमस
यहां तक चली आ रही है -
मेरे पास तक -
 
जहां एक भयानक खिलखिलाहट 
रह-रह कर फूट पड़ती है
इन चीखती-चिल्लाती आतिशबाज़ियों में
जो इन नीली-पीली रोशन झालरों से
उलझकर और डरावनी बन जाती हैं?

ये अमावास की दिवाली है
या दीवाली का अमावस?



२२.दशरथ मांझी

ये इतना ऊंचा पहाड़?
अरे, ऐसे कितने पहाड़
वक्त की चक्की में पिस कर
सड़क की धूल बन गए!
कितनी ऐसी लाशें ज़माने ने
कंधे पर ढो-ढो कर
श्मशान के हवाले कीं -
और कितने ही ऐसे-वैसे मांझी
पत्थरों को काटते-काटते और
लाशों को अपने कंधों पर ढोते-ढोते
और हवाओं के साथ
जीवन का गीत गुनगुनाते
आज भी चल रहे हैं
पहाड़ को काट कर बनाई
दशरथ मांझी वाली उसी
ऊबड़-खाबड़ सड़क पर -
आज भी
जबकि हम रोज़ रात
आराम से सोते
और रोज़ सुबह
आराम से जागते
और कभी-कभार उन पर
एकाध कविताएं रचते रहे
बड़े आराम से ?

 
 मेरी ट्विटर कविताएँ’
 [मोबाइल की-पैड पर १४० ‘ट्वीट’ से रचित कविताएँ]

साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा होगी जिसमें कविता जितने विविध रूप होते होंगे| इन विविध काव्य-रूपों में वर्णों से लेकर शब्दों की संख्या तक की गिनती निश्चित होती है, पंक्तियाँ गिनी होती हैं,उनकी लम्बाई, उनकी लय और तुकों का क्रम निश्चित होता है| इसका एक छंद-शास्त्र ही होता है लगभग हर भाषा में अपना-अपना| इसका प्रमुख कारण है कविता की गेयता, जिसमें संगीत की प्रधानता होती है, और इसीलिए सबकुछ लय-ताल में बंधा होता है| और इसीलिए कविता में हर देश, हर भाषा की कविता में बहुत सारे परम्परागत काव्य-रूप होते रहे हैं जिनका प्रयोग सदियों से होता आ रहा है|

जापानी हाइकूऔर टानकाप्रसिद्द लघु-काव्य-रूप हैं| एक हाइकू पद्य में केवल १७ स्वर-वर्ण होते हैं ++५ की तीन पंक्तियाँ; जैसे – ‘उगने लगे/कंकरीट के वन/उदास मन’ (जगदीश व्योम’)| उसी तरह टानका में ५++++: ‘चमक रहे/अम्बर में बिखरे/इतने हीरे/कितना अच्छा होता/एक मेरा भी होता’ (.. तिवारी)|

इन लघु-काव्य-रूपों में टेक्नोलॉजी के इस मोबाइल युग में नवीनतम काव्य-रूप है ट्विटर कविता’| इसमें मोबाइल की बोर्डपर केवल १४० टचमें कविता या कथन अंकित होता है जिसमें स्पेसभी गिना जाता है| इसे ट्वीहाइकूभी कहा जाने लगा है| ब्रिटेन के कवि ब्रायन बिल्सटन ट्विटर के राजकविके रूप में प्रसिद्द हो चुके हैं| यहाँ प्रस्तुत हैं इसी काव्य-रूप में मेरी कुछ ट्विटर कविताएँ’|
  

     .
मैं हारा नहीं हूं 
थक गया हूं 
यह गहरी थकावट 
मुझे हराना चाहती है
पर मैं हारूंगा नहीं 
हारेगी मेरी थकावट 
क्योंकि मैं कभी हारा नहीं 
और न हारूंगा |

     .
घड़ी पहनता हूं
पर देखता हूं कम 
क्योंकि वक्त तो यों भी 
सवार रहता है 
बैताल की तरह पीठ पर 
और धड़कता रहता है 
दिल में घड़ी की ही तरह 
धक-धक-धक-धक !

    .
सूरज डूबा 
या मैं डूबा 
अंधकार में 
सूरज तो उबरेगा 
नये प्रकाश में 
डूबेगी धरती 
नाचती निज धुरी पर 
मुझको लिए-दिए 
गहरे व्योम में ढूंढती 
उस सूरज को |

     .
बिंदी
चमक रही है
गोरे माथे पर तुम्हारी
बिंदी  

तुम्हारी उलझी लटों
की ओटसे

कह रही हो जैसे
होंठ दांतों से दबाये –

नहीं समझोगे तुम कभी
मेरे मन की बात !  


        .
कविता एक तितली सी 
उड़ती आती और बैठ जाती है 
मेरे माथे पर सिहरन जगाती 
किसी कोंपल को चूमती 
पंख फड़फड़ाती 
गाती कोई अनसुना गीत 
और उड़ जाती अचानक

    .

मर्द और औरत 
बनाए गए प्यार में 
एक होने के लिए -
एक-दूसरे से
डरने या डराने 
के लिए नहीं 
पर जो इसे समझते नहीं
वे मर्द या औरत 
होते ही नहीं...

    .

आदमी बना
जानवर से आदमी
फिर आदमी से जानवर
और तब जानवर से भी बदतर
कुत्ते भी  रेप-गैंगरेप नहीं करते
आदमी में नहीं रही
कुत्तों वाली नैतिकता भी

      .

ज़ू में बैठा हूं मैं 

लोग तो जानवरों को 
देख रहे हैं

मैं उन लोगों को
देख रहा हूं

और कुछ लोग 
आते-जाते
हैरत-भरी नज़रों से

मुझको भी 
देख लेते हैं

    .
मैं एक खंडहर हूं
कब्रगाह के बगल में

मेरे अहाते में
जो एक दरख़्त है
ठूंठ शाखों वाला

उस पर अक्सर 
क्यों आकर बैठती है
सोच मे डूबी
एक काली चील?

      १०.
शुरू किए मैंने
कितने सारे काम
जिनमें कुछ ही किए पूरे
बाकी सब छोड़ दिए अधूरे
ताकि घूमती रहे दुनिया
अपनी धुरी पर
और पूरा करे
मेरे
अधूरे
सब
काम

       ११.

क्या मेरी कहानी
ख़तम हो गई –
सुननेवाले से
मैंने पूछा
लेकिन देखा तो वह
सोया पड़ा था
उसके सीने पर हाथ रक्खा
पर उसकी सांस तो
कब की
रुक चुकी थी

      १२.

मैं उलटा कुरता
पहने ही सो गया था
मैंने बहू से कहा
वह बोली
इसका मतलब
आपकी उम्र बढ़ी
और आपको
नया कपड़ा मिलेगा
मैं सोचने लगा
कैसा नया कपड़ा?



       १३.

दरवाजे पर दस्तक पड़ी
गो दरवाज़ा खुला था
मैं सोचता रहा
कोई आया होगा
अंदर जायेगा
मैं इंतज़ार में रहा
फिर उठ कर देखने गया
पर कोई नहीं था


© Dr BSM Murty / bsmmurty@gmail.com










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